मैं दलित और दलित चिंतकों से घोर असहमत हूँ ,कि अम्बेडकर जी अकेले दलित उत्थान की सोच लेकर चले। उस समय भारत के संवर्ण भी बिना वोट के लालच के दलित उत्थान की सोच रखते थे।
अगर इसमें रिंच मात्र संदेह होता तो 99%संवर्णों के सम्मुख अम्बेडकर न टिकते।राजनीतिक रूप से उन्हें कोई नुकसान न था।लेकिन वह दलितों के प्रति अच्छी भावना रखते थे।इसका श्रेय दलित, दलित चिंतक और इतिहास संवर्णों को न दे सका।
यह श्रेय न देने से दो खाईयां निर्मित हुई।एक दलितों और संवर्णों के बीच दूसरी दलितों और हाशिये से ऊपर न आ पाने वाले दलितों के बीच।
पहली स्वाभाविक मान सकते हो मगर दूसरी भयावह है।जो रह गये -छूट गये उन्हें अभी कोई आशा नहीं है।
अर्थात समग्र विकास का स्वप्न पूरा हो,ऐसी देश में कोई हलचल नहीं है।
यह दुर्भाग्य है।